हास्य-व्यंग्य >> कबूतर कौए और तोते कबूतर कौए और तोतेरवीन्द्रनाथ त्यागी
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
राष्ट्र के एक नेता को श्रद्धांजलि
भाइयों और बहिनों,
जैसा कि आप भली-भाँति जानते हैं, आज हम एक महान जननेता को श्रद्धांजलि अर्पण करने के लिए यहाँ एकत्रित हुए हैं। हमारे इस नेता के चले जाने से हम लोगों की जो क्षति हई है, उसका पूरा पता हमें दस वर्ष बाद ही लगेगा। इस शोक सभा का अध्यक्ष आपने मुझे बनाया है इसका मुझे हर्ष है। मुझे स्वप्न में भी यह अनुमान नहीं था कि हमें यह दिन भी देखना पड़ेगा।
इन नेता का व्यक्तिगत जीवन, उनके सामाजिक व राजनीतिक जीवन से इतना जुड़ा हुआ था कि हम उसे अलग-अलग करके देख ही नहीं सकते। एक जीवन की चर्चा करते हुए, हमें उनके शेष जीवनों पर भी ध्यान देना पड़ेगा। सच्ची बात तो यह है कि उनका अपना जीवन तो कोई था ही नहीं। उनका तो सारा जीवन देश को ही समर्पित था। वे देश की सेवा के लिए ही पैदा हुए थे और वे देश की सेवा के लिए ही शहीद भी हुए।
वे बेहद सदी किस्म के आदमी थे। उनकी कोठी बेहद विशाल है पर फिर भी वह बेहद सादी है। कोठी में वैसे भी मात्र तीस ही कमरे हैं जो निहायत सादगी के साथ सजे हैं। सारे पर्दे, कालीन, सोफे, कलाकृतियाँ, पुस्तकें, फर्नीचर और अतिथिकक्ष मात्र खादी के सहारे ही सजे हैं और ऊपर बतायी गयी सारी वस्तुएँ वैसे भी देसी ही हैं। मदिरा के अलावा उन्होंने किसी विदेशी वस्तु को हाथ तक नहीं लगाया। उनकी कोठी की तीस एकड़ भूमि में लगे, बाग के सारे पेड़ देसी हैं, उनके विशाल लान पर जो घास उगी हुई है वह भी देसी ही है और उनके चार खानसामा, पन्द्रह नौकर और तीन ड्राइवर जो हैं उनकी वर्दियाँ भी पवित्र खादी की ही बनी हैं। अपनी विदेशी कारों में भी उन्होंने जो पर्दे लगवाये वे उन्हीं के द्वारा काते गये सूत के थे। उनकी जितनी भी पत्नियाँ, उपपत्नियाँ व प्रिय दासियाँ हैं, वे भी भारत में ही बने रेशम के वस्त्र पहनती हैं। और उनका अपना जीवन तो एक खुली हुई किताब थी। यदि गाँधी जी ऊपर से नंगे रहते थे तो हमारे ये महान नेता सदा नीचे से नंगे रहते थे। उन्होंने इतने बड़े-बड़े पदों को सुशोभित किया मगर अभी काँटा-छुरी का उपयोग नहीं किया। अपनी मितव्ययता के कारण ही उन्होंने उसी युवती को अपनी प्रेमिका रखा जो उनके सुपुत्र की प्रेमिका भी थी। जो काम फिलिस्तीनी नेता यासर अराफात ने अब किया है वह हमारे ये नेता वर्षों पहले तब कर चुके थे जब पिचहत्तर वर्ष की आयु में उन्होंने तीस वर्ष की कन्या से वैदिक रीति से अपना अन्तिम विवाह सम्पन्न किया था। आज जिस कफन को हमने उनके पवित्र शव पर डाला, वह भी तो खादी का ही था। चिता में जो सामग्री और चन्दन की लकड़ी लगी वह भी इसी देश की थी, बाहर की नहीं।
हमारे ये नेता गाँधी जी के ‘ट्रस्टीशिप’ वाले पवित्र सिद्धान्त में पूरी आस्था रखते थे। उन्होंने न जाने कितना धन कमाया और न जाने किस-किस तरह कमाया पर उन्होंने उसे सदा बेनामी ही रखा, उसके सूद से गरीबों की सहायता की और जब उन्होंने अपने प्राण छोड़े तो वे वह सारा धन भी यहीं छोड़ गये-उसे अपने साथ नहीं ले गये। बाढ़ व सूखा-इन दोनों के न आने पर वह बच्चों की भाँति विलाप किया करते थे। ऐसा दूरदर्शी नेता अब हमें कहाँ मिलेगा ? उनकी मृत्यु से हम क्या सारा देश ही अनाथ हो गया।
वे एक कुशल प्रशासक थे। उनके विचार निश्चित थे पर उनकी कार्यप्रणाली हमेशा लचीली ही रहती थी। ब्यूरोक्रेसी को पतन से बचाने के लिए, उन्होंने सारी रिश्वत सदा अपने आप ही ली, किसी और को नहीं लेने दी। सारा विष उन्होंने भगवान नीलकण्ठ की भाँति सदा स्वयं ही पिया और उस विष की गर्मी को खलास करने के लिए उन्होंने कोई न कोई चन्द्रमा अपनी गोद में हमेशा रखा। देश की जनता ने उन्हें सोने का मुकुट दिया, चाँदी की कटार भेंट करी और उन्हें रूपयों से तोला। उन्होंने यह सारी सम्पत्ति अपने ही तहखाने में रखी, उसे किसी ग़रीब प्रतिद्वन्द्वी को पराजित करने के लिए, चुनाव में कभी नहीं खर्च किया।
स्त्रियों और हरिजनों के उद्धार पर जितनी शक्ति, जितना समय और जितना धन उन्होंने खर्च किया उसका सानी आपको नहीं मिलेगा। इन दोनों चीजों का एक साथ ही उद्धार करने के लिए उन्होंने जो मौलिक रास्ता खोजा था वह भी उनका अपना ही था। जो भी समय उनके पास बचता था, उसे वे पिछड़ी जातियों की सुन्दर स्त्रियों के साथ ही बिताते थे। उन्होंने हरिजनों और ब्राह्मणों के साथ समान वायदे किये और अपनी निष्पक्षता के कारण उन्होंने दोनों को दिये किसी भी वचन का कभी भी पालन नहीं किया। नौकरशाही व विरोधी पार्टियाँ भी उनकी इस सफलता की दाद देती थीं। आज देश में एक युवती अपने प्रेमी के साथ विवाह के मुद्दे को लेकर भूख हड़ताल पर बैठी है। उनके जाने के बाद इस देश में यही सब होगा। आज यदि वे जिन्दा होते तो उस कन्या को सुख देने के हेतु वह उससे स्वयं विवाह कर लेते। गन्धर्व-विवाह से लेकर राक्षस-विवाह तक उन्होंने कोई ऐसा विवाह नहीं छोड़ा था जो कि स्त्री-जाति को सुख पहुँचाने के लिए उन्होंने न किया हो। मैं पूछता हूँ कि स्त्रियों की इतनी चिन्ता करने वाला क्या कोई और नेता इस देश में है ?
वे भारतीय आर्ष संस्कृति के कट्टर पुजारी थे। देवताओं की भाँति वे भी सोमरस पीते थे और सुन्दर अप्सराओं के साथ सुख पाते थे। उनके लेटर पैड पर ‘श्री गणेशाय नमः’ सदा लिखा रहता था। वह जब भी हरिद्वार, प्रयाग या वाराणसी जाते थे तो गंगाजल पिये बिना कभी नहीं लौटते थे। वयोवृद्ध कवियों व अज्ञात-यौवना कवयित्रियों के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। चुनाव में शत्रुओं की कूटनीति के कारण पराजित होने के बाद उन्होंने एक महायज्ञ किया जिसमें उनकी दस लाख मुद्राएँ खर्च हुईं। कुलपति बनने पर उन्होंने मैथिलीशरण जी को कोर्स में से ‘गुप्त’ किया और नयी पीढ़ी को राष्ट्र-कवि बनाने में सहायता दी। उनके पास जो भी समय बचता था वह लोकचित्र व लोकगीतों के विकास को ही दिया जाता था। ‘रामायण’ व ‘कृष्णायन’ की तर्ज पर उन्होंने ‘हनुमानायन’ लिखी और अपने पुत्र का नाम ‘पवन’ व पुत्री का नाम ‘अंजलि’ रखा। उन्होंने न जाने कितनी बहुत प्राचीन मूर्तियाँ विदेश भिजवायीं और विदेशी मूर्तियों को गले से लगाया। यदि विदेशी लोग हमारी संस्कृति से घनिष्ठ परिचय नहीं करेंगे तो विवेकानन्द को विदेश जाने के लिए फिर जन्म लेना पड़ेगा। यदि आज वे जीवित होते तो बन्दर न निर्माण-भवन पर चढ़ाई करते और न बेहद क़ीमती मशीनों को अस्पतालों में बेकार पड़ा रहने देते जैसा कि एक प्रदेश में अभी-अभी पाया गया।
गाँधी जी के आदेशानुसार हमारे इन दिवंगत नेता ने भी कुटीर उद्योगों पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने शराब के कारखाने नहीं खुलवाये, उनके स्थान पर देसी दारू की भट्ठियाँ खुलवायीं। लालफीताशाही से उन्हें नफ़रत थी और इसी कारण उन्होंने इन भट्ठियों को बिना लाइसेन्स के ही चलाया। उन्होंने गाँव-गाँव डकैतों के दल खड़े किये। भाँग, धतूरा और चरस-इनका स्मलिंग इन्हीं सेवक डाकुओं द्वारा सम्पन्न किया गया। गाँव-गाँव में वेश्यावृत्ति को प्रोत्साहन दिया गया ताकि संसार का यह पुरातनतम उद्योग कहीं पूंजीपतियों के प्रभाव से समाप्ति को न प्राप्त हो जाए। उनका परिवार नियोजन में भी बड़ा विश्वास था। इतनी पत्नियों के होते हुए भी उनके मात्र सत्तरह ही बच्चे थे जो शव में अग्नि देने के लिए श्मशान में ही सबके सामने झगडऩे लगे थे। ऐसी पितृभक्ति इस कलिकाल में कहाँ देखने को मिलती है ? जब वे मुख्यमंत्री बने तो उनके मन्त्रिमण्डल में मात्र सत्तर मन्त्री थे जो सब-के-सब भेदभाव मिटाने की दृष्टि से कैबिनेट स्तर के ही रखे गये थे। विधान-सभा में जो दस सदस्य ऐसे बचे जो मन्त्री बनना नहीं चाहते थे, उन्हें सार्वजनिक संस्थाओं का कर्ता-धर्ता और हर्ता बना दिया गया और ज़र, ज़ोरू व ज़मीन की सब सुविधाएँ भी उन्हें बराबर दी गयीं जो अब तक मात्र मन्त्रियों को ही दी जाती थीं। पाण्डवों की तरह वे सत्ता की द्रौपदी को बाँट कर ही भोगते थे, अकेले नहीं। उनके रहते किसी भी विरोधी पार्टी को सबके सामने चीर-हरण का अवसर कभी नहीं मिला, अकेले में मिला हो, वह दूसरी बात ठहरी।
यूँ तो वे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धान्त को मानने के कारण प्रायः विदेश जाते रहते थे पर हृदय उनका सदा अपने चुनाव क्षेत्र में ही पड़ा रहता था। उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र में पक्की सड़के बनवायीं जिन पर दिन में जिला-विकास अधिकारी और रात को पुलिस की जीप बराबर दौड़ती हैं। उनके चुनाव-क्षेत्र का कोई स्टेशन ऐसा नहीं बचा था जहाँ कि डाकगाड़ी न रुकती हो चाहे चढऩे वाला या उतरने वाला कोई यात्री हो या न हो।
उन्होंने स्कूल खुलवाये जहाँ कि ब्लैक-बोर्ड हों या न हों, सुन्दर अध्यापिका सदा रहीं। इसी प्रकार उन्होंने जगह-जगह अस्पताल खुलवाये जिनमें डॉक्टर और दवाइयाँ भले ही न रही हों, प्राकृतिक चिकित्सा प्रदान करने वाली हसीन नर्से दिन-रात जनता की सेवा करती थीं। वे चाहते थे कि प्रदेश का कोई भाग अविकसित न रहे और इसी कारण वे हर चुनाव के बाद अपना चुनाव क्षेत्र बदलते रहते थे। ऐसा दूरदर्शी नेता अब हमें चित्रों के अतिरिक्त और कहाँ देखने को मिलेगा ? इधर तो वे प्रत्येक नगर और क़स्बे में अपने हवाई ज़हाज के लिए हवाई-अड्डा बनवा रहे थे ताकि ग़रीब जनता हवाई ज़हाज को कम-से-कम पास से देख तो सके। क्रूर विधाता ने उनकी यह इच्छा पूरी नहीं होने दी।
हमारे इन नेता का दैनिक जीवन बेहद व्यस्त रहता था। वे न जाने कितने पुलों, बाँधों, फैक्टरियों, पुस्तकों और नवयुवतियों का विमोचन या उद्घाटन करते रहते थे और आश्चर्य की बात तो यह है कि यह सब होते हुए भी वे सदा प्रत्येक से मिलने को तैयार रहते थे। उनका जीवन बेहद नियमित था, वे कभी दिन के नौ बजे से पहले उठते नहीं थे और रात के दो बजे से पहले सोते नहीं थे। इतनी कार्यतत्परता अब कहाँ देखने को मिलेगी ? वे दिन भर पुरुषों की समस्याएँ सुलझाते थे और रात भर स्त्रियों की। यदि वे ब्रिटेन में पैदा हुए होते तो वहाँ वह जघन्य घटना न घटी होती जो आज अख़बार के मुखपृष्ठ पर छपी है। उस पतित देश में एक पतित पति पिछले पचास वर्षों से जब भी बाहर जाता था, तभी अपनी कोमल पत्नी की कोयलों के गोदाम में बन्द करके जाता था। भगवान की कृपा है, यह समाचार उनके मरने के बाद छपा है, पहले नहीं। स्त्रियों के ऊपर वे कोई अत्याचार कभी सहन कर ही नहीं सकते थे। मैं उनके निकट सम्पर्क में रहा हूँ और इसी आधार पर मैं कह सकता हूँ कि किसी भी स्त्री को उनसे मुलाकात करने में कभी भी विलम्ब नहीं होता था। हाँ, यदि नारी सुन्दर होती थी तो मुलाकात के बाद कोठी के बाहर निकलने में उसे अवश्य देर लगती थी, क्योंकि वे उस युवती-विशेष के सामने उठी हुई समस्याओं पर बहुत ध्यान देते थे, अपने उदात्त प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करते थे और फिर पूरी गहराई में जाकर उसके दुख की अग्नि को यथाशक्ति शान्त करते थे। उनके जीते जी उनकी उस विशाल कोठी ने सदा कोठे का सुख प्रदान किया। सादा जीवन, सादे विचार।
हमारे ये दिवंगत नेता धार्मिक व्यक्ति थे। वे एकादशी का व्रत रखते थे, सन्तोषी माता की पूजा करते थे और सत्यनारायण स्वामी की ठीक वही कथा सुनते थे जिसमें चन्द्रमा के समान सुन्दर कलावती नाम की कन्या की कथा भी कही जा चुकी है। वे तुलसी के बिरवे के नीचे प्रतिदिन दीपक जलाते थे, पूजा करते थे और दिन में अनेक बार अपना यज्ञोपवीत अवश्य धोते थे। वे एक योगी पुरुष थे, वे पत्रकारों को ज्ञानयोग से जीतते थे, हाईकमाण्ड के सामने भक्तियोग का प्रदर्शन करते थे, जनता को प्रेमयोग से जीतते थे, रात्रि को कर्मयोग का अभ्यास करते थे और दिन को विरोधी विधायकों को हठयोग से जीतते थे। वे नेता नहीं, सचमुच एक देवता थे।
हमारे इन दिवंगत नेता का सबसे बड़ा गुण यह था कि वे एकदम निडर व्यक्ति थे। देश की प्रगति के लिए वे सामप्रदायिक दंगे करवाते थे, चुनाव को लाठी और बन्दूक के बल से जीतते थे और ज़रूरत पड़ने पर विरोधी प्रत्याशी की हत्या भी करवा देते थे। वे विधान सभा तक में हाथापाई के लिए हमेशा तैयार रहते थे। उनका हृदय भी विशाल था, शरीर भी विशाल था और उनका दिमाग भी स्थूल ही था और मंजिलों वाला था। मगर भगवान साक्षी है, उन्होंने जो कुछ भी किया वह अपने लिए कभी नहीं किया, वह सब देश के लिए ही किया, देश की जनता के लिए किया और गाँधी जी के सिद्धान्तों के लिए किया। उनका जीवन समझने में हमें देर लगेगी। और किसी हत्या के लिए तो किसी को भी जिम्मेदार ठहराना एकदम गलत है। जीवन और मृत्यु तो प्रभु के अधीन है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ। और हत्या तो मात्र शरीर से सम्बन्ध रखती है, असली माल तो आत्मा है जो एकदम अजर और अमर है। नितान्त शारीरिक स्तर पर जीवित रहते हुए भी हमारे ये दिवंगत नेता अपने आध्यात्मिक स्तर को कभी नहीं भूलते थे। उन्होंने जब कभी भी किसी विरोधी के प्राण लिये, तभी-तभी उन्होंने तीर्थराज प्रयाग में स्नान किया, पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराया और उन्हें अंगवस्त्र भी प्रदान किया। अपनी इसी आध्यात्मिक शक्ति के कारण, वे अपने और पराये में कभी कोई अन्तर नहीं मानते थे। दूसरों की पत्नियाँ उनकी अपनी पत्नियाँ थीं और दूसरों का धन सदा उनका धन था। दूसरों को अपने धन की कीचड़ से मुक्त करना सदा उनके जीवन का प्रथम लक्ष्य रहा। इस मूल सिद्धान्त को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। जनता ने चाहा या न चाहा, चुनाव उन्होंने सदा जीता।
हमारे ये स्वर्गवासी नेता एक सच्चे मित्र थे। अपने मित्रों और निकट रिश्तेदारों को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। क्या बस, क्या पेट्रोल पम्प, क्या राशन की दुकान-इन सबके ठेके इन्होंने सदा इन्हीं लोगों को दिये। इन लोगों में से यदि कोई किसान था तो उसकी बिजली और पानी का बिल और लगान इन्होंने सदा माफ़ करवाया। जो क्षत्रिय थे वे पुलिस में लिये गये। जो वैश्य थे उन्हें बिक्रीकर और लाइसेन्स की इल्लतों से बचाया गया। जो ब्राह्मण और शूद्र थे उन्हें क्रमशः मन्दिरों का पुजारी व धार्मिक स्थलों का रक्षक नियुक्त किया गया। उन्होंने वर्ण-परम्परा, चारों आश्रम व सोलहों संस्कारों की समुचित रक्षा की। वे देश के नेता बन कर भी पुरानी परम्पराओं को नहीं भूले। शाहजहाँ के बाद वे देश के दूसरे सच्चे निर्माता थे। उन्होंने अपने शासनकाल में पता नहीं कितनी इमारतें बनवायीं और उनके निर्माण का ठेका भी उनेक दामादों को ही मिला। कितने हर्ष की बात है कि ऐसी अधिकांश इमारतें उनके जीवन काल में ही ढह गयीं।
मैं उनका घनिष्ठ साथी रहने के कारण यह कह सकता हूँ और दावे के साथ कह सकता हूँ कि वे पशुओं से भी उतना ही प्यार करते थे जितना कि मनुष्यों से। वे आदमी में और शेष जानवरों में कोई अन्तर नहीं समझते थे और इसी कारण उनकी गाय और भैसें तक उसी प्रकार वातानुकूलित वातावरण में रहती थी जैसे कि उनकी रखैलें रहती थीं। कबाब वे सिर्फ़ शायराना तबीयत होने के कारण ग्रहण करते थे, वैसे नहीं। अगर कबाब की तुक शराब या शबाब से न मिलती तो वे उसे हर्गिज नहीं खाते। इन तीनों चीज़ों के सेवन करने से वे शबाब के बाक़ी और भी सारे काम बदस्तूर करते थे। ऐसे व्यक्तित्व का अभाव हमें कितना खलेगा-इस बात को समझने में हमें देर लगेगी। वे बड़े हँसमुख और हाज़िर-जबाब थे और इसी कारण खिज़ाब को भी पेशाब में मिलाकर लगाया करते थे।
हमारे ये देशनेता एक सच्चे त्यागी थे। उन्हें किसी से कोई मोह कभी नहीं रहा। उन्होंने पत्नियाँ छोड़ी, पार्टियाँ छोड़ी, चरित्र छोड़ा पर सिद्धान्त कभी नहीं छोड़े। उम्र बढ़ने पर उन्होंने देश को नयी पीढ़ी के लिए छोड़ दिया और स्वयं राज्यपाल रहकर भी सदा लेखपाल की भाँति सादगी से रहे और प्रसन्नता से रहे। वे भस्म व कुश्ते खाते रहे और राज्यपाली के साथ-साथ आम्रपाली का सेवन भी करते रहे। समय बदला पर उनका मापदण्ड नहीं बदला।
आज देश का वह महान् नेता शहीद हो गया। भगतसिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, खुदीराम बोस व रामप्रसाद बिस्मिल ने जिस देश को आज़ाद कराने के लिए अपने प्राण दिये, उसी देश की सेवा करते-करते वे भी शहीद हो गये। प्रेस वाले ग़लत कहते हैं कि उनकी हत्या व्यक्तिगत कारणों से की गयी, सच्ची बात यही है कि वे आतंकवादियों की गोली का शिकार हुए। प्रेस तो उनका सारी उम्र दुश्मन रहा पर क्या कर पाया ? उन पर भ्रष्टाचार, बलात्कार, रिश्वतख़ोरी और पता नहीं किस-किस अपराध के आरोप लगाये गये, मगर इतिहास साक्षी है कि क्या कोई भी जाँच-आयोग उनके ख़िलाफ़ कुछ साबित कर पाया ? क्या सारे जज ही भ्रष्ट और निकम्मे थे और क्या सारी अदालतें ही रिश्वतखोर थीं ? हर्गिज़ नहीं। सच्ची बात तो यह है कि प्रेस का कोई भी भ्रष्ट संवाददाता उन जैसे देवता के विरुद्ध और कर ही क्या सकता था ?
अन्त में मैं वही कहूँगा जो कि ऐसे पवित्र अवसरों पर प्रायः कहा जाता है यदि सारे समुद्रों की दवात बने, सारे पर्वतों की स्याही बने और यदि स्वयं कुमारी सरस्वती जी भी उनकी यशोगाथा लिखने बैठें तो वे भी शायद गर्भवती हो जाएँगी और उनकी कथा अपूर्ण रह जाएगी। सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि नयी पीढ़ी उनके चरण-चिह्नों पर चले और उनका बाकी काम, फल की इच्छा त्याग कर, पूरा करे। इन महान नेता को भी जब से मधुमेह हुआ था तब से फलों से सख़्त एतराज़ हो गया था। जयहिन्द कहने से पूर्व मैं इस बात के लिए नये मुख्यमंन्त्री को धन्यवाद दूँगा कि इन नेता की विशाल समाधि बनाने का ठेका उन्होंने मुझे ही दिया हालाँकि मेरा टेण्डर सबसे महँगा था और इस महान् नेता के आलोचकों से यही कहूँगा कि वे कभी भी झूठ को सच नहीं बना सकते। उर्दू के एक शायर ने एक शेर अर्ज़ किया है जो मैं आपको सुनाता हूँ और अपनी वाणी को विश्राम देता हूँ:
जैसा कि आप भली-भाँति जानते हैं, आज हम एक महान जननेता को श्रद्धांजलि अर्पण करने के लिए यहाँ एकत्रित हुए हैं। हमारे इस नेता के चले जाने से हम लोगों की जो क्षति हई है, उसका पूरा पता हमें दस वर्ष बाद ही लगेगा। इस शोक सभा का अध्यक्ष आपने मुझे बनाया है इसका मुझे हर्ष है। मुझे स्वप्न में भी यह अनुमान नहीं था कि हमें यह दिन भी देखना पड़ेगा।
इन नेता का व्यक्तिगत जीवन, उनके सामाजिक व राजनीतिक जीवन से इतना जुड़ा हुआ था कि हम उसे अलग-अलग करके देख ही नहीं सकते। एक जीवन की चर्चा करते हुए, हमें उनके शेष जीवनों पर भी ध्यान देना पड़ेगा। सच्ची बात तो यह है कि उनका अपना जीवन तो कोई था ही नहीं। उनका तो सारा जीवन देश को ही समर्पित था। वे देश की सेवा के लिए ही पैदा हुए थे और वे देश की सेवा के लिए ही शहीद भी हुए।
वे बेहद सदी किस्म के आदमी थे। उनकी कोठी बेहद विशाल है पर फिर भी वह बेहद सादी है। कोठी में वैसे भी मात्र तीस ही कमरे हैं जो निहायत सादगी के साथ सजे हैं। सारे पर्दे, कालीन, सोफे, कलाकृतियाँ, पुस्तकें, फर्नीचर और अतिथिकक्ष मात्र खादी के सहारे ही सजे हैं और ऊपर बतायी गयी सारी वस्तुएँ वैसे भी देसी ही हैं। मदिरा के अलावा उन्होंने किसी विदेशी वस्तु को हाथ तक नहीं लगाया। उनकी कोठी की तीस एकड़ भूमि में लगे, बाग के सारे पेड़ देसी हैं, उनके विशाल लान पर जो घास उगी हुई है वह भी देसी ही है और उनके चार खानसामा, पन्द्रह नौकर और तीन ड्राइवर जो हैं उनकी वर्दियाँ भी पवित्र खादी की ही बनी हैं। अपनी विदेशी कारों में भी उन्होंने जो पर्दे लगवाये वे उन्हीं के द्वारा काते गये सूत के थे। उनकी जितनी भी पत्नियाँ, उपपत्नियाँ व प्रिय दासियाँ हैं, वे भी भारत में ही बने रेशम के वस्त्र पहनती हैं। और उनका अपना जीवन तो एक खुली हुई किताब थी। यदि गाँधी जी ऊपर से नंगे रहते थे तो हमारे ये महान नेता सदा नीचे से नंगे रहते थे। उन्होंने इतने बड़े-बड़े पदों को सुशोभित किया मगर अभी काँटा-छुरी का उपयोग नहीं किया। अपनी मितव्ययता के कारण ही उन्होंने उसी युवती को अपनी प्रेमिका रखा जो उनके सुपुत्र की प्रेमिका भी थी। जो काम फिलिस्तीनी नेता यासर अराफात ने अब किया है वह हमारे ये नेता वर्षों पहले तब कर चुके थे जब पिचहत्तर वर्ष की आयु में उन्होंने तीस वर्ष की कन्या से वैदिक रीति से अपना अन्तिम विवाह सम्पन्न किया था। आज जिस कफन को हमने उनके पवित्र शव पर डाला, वह भी तो खादी का ही था। चिता में जो सामग्री और चन्दन की लकड़ी लगी वह भी इसी देश की थी, बाहर की नहीं।
हमारे ये नेता गाँधी जी के ‘ट्रस्टीशिप’ वाले पवित्र सिद्धान्त में पूरी आस्था रखते थे। उन्होंने न जाने कितना धन कमाया और न जाने किस-किस तरह कमाया पर उन्होंने उसे सदा बेनामी ही रखा, उसके सूद से गरीबों की सहायता की और जब उन्होंने अपने प्राण छोड़े तो वे वह सारा धन भी यहीं छोड़ गये-उसे अपने साथ नहीं ले गये। बाढ़ व सूखा-इन दोनों के न आने पर वह बच्चों की भाँति विलाप किया करते थे। ऐसा दूरदर्शी नेता अब हमें कहाँ मिलेगा ? उनकी मृत्यु से हम क्या सारा देश ही अनाथ हो गया।
वे एक कुशल प्रशासक थे। उनके विचार निश्चित थे पर उनकी कार्यप्रणाली हमेशा लचीली ही रहती थी। ब्यूरोक्रेसी को पतन से बचाने के लिए, उन्होंने सारी रिश्वत सदा अपने आप ही ली, किसी और को नहीं लेने दी। सारा विष उन्होंने भगवान नीलकण्ठ की भाँति सदा स्वयं ही पिया और उस विष की गर्मी को खलास करने के लिए उन्होंने कोई न कोई चन्द्रमा अपनी गोद में हमेशा रखा। देश की जनता ने उन्हें सोने का मुकुट दिया, चाँदी की कटार भेंट करी और उन्हें रूपयों से तोला। उन्होंने यह सारी सम्पत्ति अपने ही तहखाने में रखी, उसे किसी ग़रीब प्रतिद्वन्द्वी को पराजित करने के लिए, चुनाव में कभी नहीं खर्च किया।
स्त्रियों और हरिजनों के उद्धार पर जितनी शक्ति, जितना समय और जितना धन उन्होंने खर्च किया उसका सानी आपको नहीं मिलेगा। इन दोनों चीजों का एक साथ ही उद्धार करने के लिए उन्होंने जो मौलिक रास्ता खोजा था वह भी उनका अपना ही था। जो भी समय उनके पास बचता था, उसे वे पिछड़ी जातियों की सुन्दर स्त्रियों के साथ ही बिताते थे। उन्होंने हरिजनों और ब्राह्मणों के साथ समान वायदे किये और अपनी निष्पक्षता के कारण उन्होंने दोनों को दिये किसी भी वचन का कभी भी पालन नहीं किया। नौकरशाही व विरोधी पार्टियाँ भी उनकी इस सफलता की दाद देती थीं। आज देश में एक युवती अपने प्रेमी के साथ विवाह के मुद्दे को लेकर भूख हड़ताल पर बैठी है। उनके जाने के बाद इस देश में यही सब होगा। आज यदि वे जिन्दा होते तो उस कन्या को सुख देने के हेतु वह उससे स्वयं विवाह कर लेते। गन्धर्व-विवाह से लेकर राक्षस-विवाह तक उन्होंने कोई ऐसा विवाह नहीं छोड़ा था जो कि स्त्री-जाति को सुख पहुँचाने के लिए उन्होंने न किया हो। मैं पूछता हूँ कि स्त्रियों की इतनी चिन्ता करने वाला क्या कोई और नेता इस देश में है ?
वे भारतीय आर्ष संस्कृति के कट्टर पुजारी थे। देवताओं की भाँति वे भी सोमरस पीते थे और सुन्दर अप्सराओं के साथ सुख पाते थे। उनके लेटर पैड पर ‘श्री गणेशाय नमः’ सदा लिखा रहता था। वह जब भी हरिद्वार, प्रयाग या वाराणसी जाते थे तो गंगाजल पिये बिना कभी नहीं लौटते थे। वयोवृद्ध कवियों व अज्ञात-यौवना कवयित्रियों के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। चुनाव में शत्रुओं की कूटनीति के कारण पराजित होने के बाद उन्होंने एक महायज्ञ किया जिसमें उनकी दस लाख मुद्राएँ खर्च हुईं। कुलपति बनने पर उन्होंने मैथिलीशरण जी को कोर्स में से ‘गुप्त’ किया और नयी पीढ़ी को राष्ट्र-कवि बनाने में सहायता दी। उनके पास जो भी समय बचता था वह लोकचित्र व लोकगीतों के विकास को ही दिया जाता था। ‘रामायण’ व ‘कृष्णायन’ की तर्ज पर उन्होंने ‘हनुमानायन’ लिखी और अपने पुत्र का नाम ‘पवन’ व पुत्री का नाम ‘अंजलि’ रखा। उन्होंने न जाने कितनी बहुत प्राचीन मूर्तियाँ विदेश भिजवायीं और विदेशी मूर्तियों को गले से लगाया। यदि विदेशी लोग हमारी संस्कृति से घनिष्ठ परिचय नहीं करेंगे तो विवेकानन्द को विदेश जाने के लिए फिर जन्म लेना पड़ेगा। यदि आज वे जीवित होते तो बन्दर न निर्माण-भवन पर चढ़ाई करते और न बेहद क़ीमती मशीनों को अस्पतालों में बेकार पड़ा रहने देते जैसा कि एक प्रदेश में अभी-अभी पाया गया।
गाँधी जी के आदेशानुसार हमारे इन दिवंगत नेता ने भी कुटीर उद्योगों पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने शराब के कारखाने नहीं खुलवाये, उनके स्थान पर देसी दारू की भट्ठियाँ खुलवायीं। लालफीताशाही से उन्हें नफ़रत थी और इसी कारण उन्होंने इन भट्ठियों को बिना लाइसेन्स के ही चलाया। उन्होंने गाँव-गाँव डकैतों के दल खड़े किये। भाँग, धतूरा और चरस-इनका स्मलिंग इन्हीं सेवक डाकुओं द्वारा सम्पन्न किया गया। गाँव-गाँव में वेश्यावृत्ति को प्रोत्साहन दिया गया ताकि संसार का यह पुरातनतम उद्योग कहीं पूंजीपतियों के प्रभाव से समाप्ति को न प्राप्त हो जाए। उनका परिवार नियोजन में भी बड़ा विश्वास था। इतनी पत्नियों के होते हुए भी उनके मात्र सत्तरह ही बच्चे थे जो शव में अग्नि देने के लिए श्मशान में ही सबके सामने झगडऩे लगे थे। ऐसी पितृभक्ति इस कलिकाल में कहाँ देखने को मिलती है ? जब वे मुख्यमंत्री बने तो उनके मन्त्रिमण्डल में मात्र सत्तर मन्त्री थे जो सब-के-सब भेदभाव मिटाने की दृष्टि से कैबिनेट स्तर के ही रखे गये थे। विधान-सभा में जो दस सदस्य ऐसे बचे जो मन्त्री बनना नहीं चाहते थे, उन्हें सार्वजनिक संस्थाओं का कर्ता-धर्ता और हर्ता बना दिया गया और ज़र, ज़ोरू व ज़मीन की सब सुविधाएँ भी उन्हें बराबर दी गयीं जो अब तक मात्र मन्त्रियों को ही दी जाती थीं। पाण्डवों की तरह वे सत्ता की द्रौपदी को बाँट कर ही भोगते थे, अकेले नहीं। उनके रहते किसी भी विरोधी पार्टी को सबके सामने चीर-हरण का अवसर कभी नहीं मिला, अकेले में मिला हो, वह दूसरी बात ठहरी।
यूँ तो वे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धान्त को मानने के कारण प्रायः विदेश जाते रहते थे पर हृदय उनका सदा अपने चुनाव क्षेत्र में ही पड़ा रहता था। उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र में पक्की सड़के बनवायीं जिन पर दिन में जिला-विकास अधिकारी और रात को पुलिस की जीप बराबर दौड़ती हैं। उनके चुनाव-क्षेत्र का कोई स्टेशन ऐसा नहीं बचा था जहाँ कि डाकगाड़ी न रुकती हो चाहे चढऩे वाला या उतरने वाला कोई यात्री हो या न हो।
उन्होंने स्कूल खुलवाये जहाँ कि ब्लैक-बोर्ड हों या न हों, सुन्दर अध्यापिका सदा रहीं। इसी प्रकार उन्होंने जगह-जगह अस्पताल खुलवाये जिनमें डॉक्टर और दवाइयाँ भले ही न रही हों, प्राकृतिक चिकित्सा प्रदान करने वाली हसीन नर्से दिन-रात जनता की सेवा करती थीं। वे चाहते थे कि प्रदेश का कोई भाग अविकसित न रहे और इसी कारण वे हर चुनाव के बाद अपना चुनाव क्षेत्र बदलते रहते थे। ऐसा दूरदर्शी नेता अब हमें चित्रों के अतिरिक्त और कहाँ देखने को मिलेगा ? इधर तो वे प्रत्येक नगर और क़स्बे में अपने हवाई ज़हाज के लिए हवाई-अड्डा बनवा रहे थे ताकि ग़रीब जनता हवाई ज़हाज को कम-से-कम पास से देख तो सके। क्रूर विधाता ने उनकी यह इच्छा पूरी नहीं होने दी।
हमारे इन नेता का दैनिक जीवन बेहद व्यस्त रहता था। वे न जाने कितने पुलों, बाँधों, फैक्टरियों, पुस्तकों और नवयुवतियों का विमोचन या उद्घाटन करते रहते थे और आश्चर्य की बात तो यह है कि यह सब होते हुए भी वे सदा प्रत्येक से मिलने को तैयार रहते थे। उनका जीवन बेहद नियमित था, वे कभी दिन के नौ बजे से पहले उठते नहीं थे और रात के दो बजे से पहले सोते नहीं थे। इतनी कार्यतत्परता अब कहाँ देखने को मिलेगी ? वे दिन भर पुरुषों की समस्याएँ सुलझाते थे और रात भर स्त्रियों की। यदि वे ब्रिटेन में पैदा हुए होते तो वहाँ वह जघन्य घटना न घटी होती जो आज अख़बार के मुखपृष्ठ पर छपी है। उस पतित देश में एक पतित पति पिछले पचास वर्षों से जब भी बाहर जाता था, तभी अपनी कोमल पत्नी की कोयलों के गोदाम में बन्द करके जाता था। भगवान की कृपा है, यह समाचार उनके मरने के बाद छपा है, पहले नहीं। स्त्रियों के ऊपर वे कोई अत्याचार कभी सहन कर ही नहीं सकते थे। मैं उनके निकट सम्पर्क में रहा हूँ और इसी आधार पर मैं कह सकता हूँ कि किसी भी स्त्री को उनसे मुलाकात करने में कभी भी विलम्ब नहीं होता था। हाँ, यदि नारी सुन्दर होती थी तो मुलाकात के बाद कोठी के बाहर निकलने में उसे अवश्य देर लगती थी, क्योंकि वे उस युवती-विशेष के सामने उठी हुई समस्याओं पर बहुत ध्यान देते थे, अपने उदात्त प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करते थे और फिर पूरी गहराई में जाकर उसके दुख की अग्नि को यथाशक्ति शान्त करते थे। उनके जीते जी उनकी उस विशाल कोठी ने सदा कोठे का सुख प्रदान किया। सादा जीवन, सादे विचार।
हमारे ये दिवंगत नेता धार्मिक व्यक्ति थे। वे एकादशी का व्रत रखते थे, सन्तोषी माता की पूजा करते थे और सत्यनारायण स्वामी की ठीक वही कथा सुनते थे जिसमें चन्द्रमा के समान सुन्दर कलावती नाम की कन्या की कथा भी कही जा चुकी है। वे तुलसी के बिरवे के नीचे प्रतिदिन दीपक जलाते थे, पूजा करते थे और दिन में अनेक बार अपना यज्ञोपवीत अवश्य धोते थे। वे एक योगी पुरुष थे, वे पत्रकारों को ज्ञानयोग से जीतते थे, हाईकमाण्ड के सामने भक्तियोग का प्रदर्शन करते थे, जनता को प्रेमयोग से जीतते थे, रात्रि को कर्मयोग का अभ्यास करते थे और दिन को विरोधी विधायकों को हठयोग से जीतते थे। वे नेता नहीं, सचमुच एक देवता थे।
हमारे इन दिवंगत नेता का सबसे बड़ा गुण यह था कि वे एकदम निडर व्यक्ति थे। देश की प्रगति के लिए वे सामप्रदायिक दंगे करवाते थे, चुनाव को लाठी और बन्दूक के बल से जीतते थे और ज़रूरत पड़ने पर विरोधी प्रत्याशी की हत्या भी करवा देते थे। वे विधान सभा तक में हाथापाई के लिए हमेशा तैयार रहते थे। उनका हृदय भी विशाल था, शरीर भी विशाल था और उनका दिमाग भी स्थूल ही था और मंजिलों वाला था। मगर भगवान साक्षी है, उन्होंने जो कुछ भी किया वह अपने लिए कभी नहीं किया, वह सब देश के लिए ही किया, देश की जनता के लिए किया और गाँधी जी के सिद्धान्तों के लिए किया। उनका जीवन समझने में हमें देर लगेगी। और किसी हत्या के लिए तो किसी को भी जिम्मेदार ठहराना एकदम गलत है। जीवन और मृत्यु तो प्रभु के अधीन है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ। और हत्या तो मात्र शरीर से सम्बन्ध रखती है, असली माल तो आत्मा है जो एकदम अजर और अमर है। नितान्त शारीरिक स्तर पर जीवित रहते हुए भी हमारे ये दिवंगत नेता अपने आध्यात्मिक स्तर को कभी नहीं भूलते थे। उन्होंने जब कभी भी किसी विरोधी के प्राण लिये, तभी-तभी उन्होंने तीर्थराज प्रयाग में स्नान किया, पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराया और उन्हें अंगवस्त्र भी प्रदान किया। अपनी इसी आध्यात्मिक शक्ति के कारण, वे अपने और पराये में कभी कोई अन्तर नहीं मानते थे। दूसरों की पत्नियाँ उनकी अपनी पत्नियाँ थीं और दूसरों का धन सदा उनका धन था। दूसरों को अपने धन की कीचड़ से मुक्त करना सदा उनके जीवन का प्रथम लक्ष्य रहा। इस मूल सिद्धान्त को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। जनता ने चाहा या न चाहा, चुनाव उन्होंने सदा जीता।
हमारे ये स्वर्गवासी नेता एक सच्चे मित्र थे। अपने मित्रों और निकट रिश्तेदारों को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। क्या बस, क्या पेट्रोल पम्प, क्या राशन की दुकान-इन सबके ठेके इन्होंने सदा इन्हीं लोगों को दिये। इन लोगों में से यदि कोई किसान था तो उसकी बिजली और पानी का बिल और लगान इन्होंने सदा माफ़ करवाया। जो क्षत्रिय थे वे पुलिस में लिये गये। जो वैश्य थे उन्हें बिक्रीकर और लाइसेन्स की इल्लतों से बचाया गया। जो ब्राह्मण और शूद्र थे उन्हें क्रमशः मन्दिरों का पुजारी व धार्मिक स्थलों का रक्षक नियुक्त किया गया। उन्होंने वर्ण-परम्परा, चारों आश्रम व सोलहों संस्कारों की समुचित रक्षा की। वे देश के नेता बन कर भी पुरानी परम्पराओं को नहीं भूले। शाहजहाँ के बाद वे देश के दूसरे सच्चे निर्माता थे। उन्होंने अपने शासनकाल में पता नहीं कितनी इमारतें बनवायीं और उनके निर्माण का ठेका भी उनेक दामादों को ही मिला। कितने हर्ष की बात है कि ऐसी अधिकांश इमारतें उनके जीवन काल में ही ढह गयीं।
मैं उनका घनिष्ठ साथी रहने के कारण यह कह सकता हूँ और दावे के साथ कह सकता हूँ कि वे पशुओं से भी उतना ही प्यार करते थे जितना कि मनुष्यों से। वे आदमी में और शेष जानवरों में कोई अन्तर नहीं समझते थे और इसी कारण उनकी गाय और भैसें तक उसी प्रकार वातानुकूलित वातावरण में रहती थी जैसे कि उनकी रखैलें रहती थीं। कबाब वे सिर्फ़ शायराना तबीयत होने के कारण ग्रहण करते थे, वैसे नहीं। अगर कबाब की तुक शराब या शबाब से न मिलती तो वे उसे हर्गिज नहीं खाते। इन तीनों चीज़ों के सेवन करने से वे शबाब के बाक़ी और भी सारे काम बदस्तूर करते थे। ऐसे व्यक्तित्व का अभाव हमें कितना खलेगा-इस बात को समझने में हमें देर लगेगी। वे बड़े हँसमुख और हाज़िर-जबाब थे और इसी कारण खिज़ाब को भी पेशाब में मिलाकर लगाया करते थे।
हमारे ये देशनेता एक सच्चे त्यागी थे। उन्हें किसी से कोई मोह कभी नहीं रहा। उन्होंने पत्नियाँ छोड़ी, पार्टियाँ छोड़ी, चरित्र छोड़ा पर सिद्धान्त कभी नहीं छोड़े। उम्र बढ़ने पर उन्होंने देश को नयी पीढ़ी के लिए छोड़ दिया और स्वयं राज्यपाल रहकर भी सदा लेखपाल की भाँति सादगी से रहे और प्रसन्नता से रहे। वे भस्म व कुश्ते खाते रहे और राज्यपाली के साथ-साथ आम्रपाली का सेवन भी करते रहे। समय बदला पर उनका मापदण्ड नहीं बदला।
आज देश का वह महान् नेता शहीद हो गया। भगतसिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, खुदीराम बोस व रामप्रसाद बिस्मिल ने जिस देश को आज़ाद कराने के लिए अपने प्राण दिये, उसी देश की सेवा करते-करते वे भी शहीद हो गये। प्रेस वाले ग़लत कहते हैं कि उनकी हत्या व्यक्तिगत कारणों से की गयी, सच्ची बात यही है कि वे आतंकवादियों की गोली का शिकार हुए। प्रेस तो उनका सारी उम्र दुश्मन रहा पर क्या कर पाया ? उन पर भ्रष्टाचार, बलात्कार, रिश्वतख़ोरी और पता नहीं किस-किस अपराध के आरोप लगाये गये, मगर इतिहास साक्षी है कि क्या कोई भी जाँच-आयोग उनके ख़िलाफ़ कुछ साबित कर पाया ? क्या सारे जज ही भ्रष्ट और निकम्मे थे और क्या सारी अदालतें ही रिश्वतखोर थीं ? हर्गिज़ नहीं। सच्ची बात तो यह है कि प्रेस का कोई भी भ्रष्ट संवाददाता उन जैसे देवता के विरुद्ध और कर ही क्या सकता था ?
अन्त में मैं वही कहूँगा जो कि ऐसे पवित्र अवसरों पर प्रायः कहा जाता है यदि सारे समुद्रों की दवात बने, सारे पर्वतों की स्याही बने और यदि स्वयं कुमारी सरस्वती जी भी उनकी यशोगाथा लिखने बैठें तो वे भी शायद गर्भवती हो जाएँगी और उनकी कथा अपूर्ण रह जाएगी। सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि नयी पीढ़ी उनके चरण-चिह्नों पर चले और उनका बाकी काम, फल की इच्छा त्याग कर, पूरा करे। इन महान नेता को भी जब से मधुमेह हुआ था तब से फलों से सख़्त एतराज़ हो गया था। जयहिन्द कहने से पूर्व मैं इस बात के लिए नये मुख्यमंन्त्री को धन्यवाद दूँगा कि इन नेता की विशाल समाधि बनाने का ठेका उन्होंने मुझे ही दिया हालाँकि मेरा टेण्डर सबसे महँगा था और इस महान् नेता के आलोचकों से यही कहूँगा कि वे कभी भी झूठ को सच नहीं बना सकते। उर्दू के एक शायर ने एक शेर अर्ज़ किया है जो मैं आपको सुनाता हूँ और अपनी वाणी को विश्राम देता हूँ:
हकीकत छिप नहीं सकती कभी नकली उसूलों से
कि ख़ुशबू आ नहीं सकती कभी कागज़ के फूलों से
कि ख़ुशबू आ नहीं सकती कभी कागज़ के फूलों से
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